होली मेरे बचपन की
ऐसी बरजोरी होली मोहे ना सोहाए री
लपक झपक गाल गुलाल लगाए री
भुज भरी कंठ कसी
चूमी- चूमी हंसी हंसी
मली मली गाल गुलाल लगाए री
होली का ये गीत उस प्रेम को प्रतिबिंबित करता है जो जबरन तो है लेकिन मीठा भी है। फागुन के मास में बाहें फैलाए हम फिर से होली के स्वागत में तैयार हैं। होली का रंग केवल एक-दूसरे के चेहरे को नहीं रंगता बल्कि प्रेम के रंग में देश को भी रंगता है। होली की वो ज़ोर-जबरजस्ती भी हर किसी लुभाती है। एक दूसरे को रंग में सराबोर कर हम सारे गिले शिकवे धो डालते हैं तभी तो कहा गया है-
मड़ई और महल दोनों एक होए जाएं
राजा और रंक दोनों एक होए जाएं।
बसंत की हवा के साथ मन को रंगती होली अपने साथ पीली सरसों की छटा भी बिखेरती है और बचपन की यादों को ताज़ा कर जाती है। साल दर साल होली के पर्व में बदलाव आए हैं लेकिन बचपन की होली की चंद यादें आजीवन नहीं भूली जा सकती है। मां के हाथ के बने पकवान, होली के साथ आए हास्य-विनोद का आनंद, वो तीखी-मीठी नोंक-झोंक तो कभी दोस्तों पर जबरन रंग उढ़ेलना- बस भूलाए नहीं भूलता।
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