साल 2007 में इंडिया टीवी न्यूज़ चैनल में एक एक्ज़िक्यूटिव प्रोड्यूसर के पद पर ज्वाइन करते ही मेरी एक खबर से सनसनी मच गई थी। खबर थी एक टेलिफोनिक बातचीत की रिकॉर्डिंग। बातचीत हुई सिवान जेल में मौजूद शहाबुद्दीन और गाज़ीपुर जेल में कैद मुख्तार अंसारी के बीच। उस बातचीत में शहाबुद्दीन और मुख्तार अंसारी गाज़ीपुर जेल में मौजूद किसी शख्स की हत्या की प्लानिंग कर रहे थे। एक पत्रकार होने के नाते मेरी उस खबर की खूब सराहनी की गई थी लेकिन मेरे शुभचिंतकों ने मुझे यह सलाह जरूर दी थी की इस तरह के खतरनाक खबरों से दूर रहने में ही मेरी भलाई है। जरा सोचिए एक अपराधी अगर सलाखों के पीछे इतना ताकतवर हो सकता है तो खुली हवा में उसकी ताकत का अंदाज़ा बखूबी लगाया जा सकता है।
ग्यारह सालों के बाद बिहार का दुर्दांत शख्स शहाबुद्दीन एक बार फिर सलाखों से बाहर है और दहशत अपने पांव पूरे सिवान में ही नहीं बल्कि पूरे बिहार में भी पैर पसार रहा है। शहाबुद्दीन ने जेल से बाहर आते जो अंदाज़ दिखाए हैं उससे बिहार वासियों के दिलों में खौफ ने घर कर लिया है।
शहाबुद्दीन को जेल से बाहर आना अपने आप में कई राजनीतिक मायने रखता है। कैद से बाहर आते ही शहाबुद्दीन ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व को जिस तरह खारिज किया और उन्हें परिस्थितियों का मुख्यमंत्री बताया उससे शहाबुद्दीन की मंशा काफी हद तक साफ हो जाती है साथ ही शहाबुद्दीन ने खुलकर यह बात साफ कर दी कि सलाखों के पीछे भी उनकी ताकत कमज़ोर नहीं हुई है। यह भी तय है कि यह नीतिश सरकार के लिए खतरे की घंटी है। यह बात नीतीश कुमार के लिए साफ हो गई होगी कि राजद से साथ महागठबंधन उनके लिए कितना भारी पड़ा है।
जी हां शहाबुद्दीन वही डॉन हैं जिन्हें सन् 2005 में नीतीश कुमार ने पूरी ताकत के साथ सलाखों के पीछे भेज कर बिहार की जनता को आश्वस्त किया था कि यह लालू के 15 साल के कुशासन और जंगलराज का अंत है। नीतीश की खूब सराहना भी हुई थी और सुसासन बाबू ने काफी हद तक भाजपा के साथ यह गठबंधन कर कमाल भी कर दिखाया था। लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में सत्ता की ललक ने नीतीश की आंखों पर ऐसी पट्टी बांधी कि वो भाजपा का दामन छोड़ राजद की गोद में जा बैठे।
शहाबुद्दीन को बेल मिलते ही भागलपुर सेंट्रल जेल के बाहर का नज़ारा चौंकाने वाला था। उसके स्वागत में ना सिर्फ 1300 गाड़ियों का काफिला तैनात था बल्कि सुशासन बाबू के कई मंत्री भी अपनी मौजूदगी दर्ज़ कराने को आतुर खड़े थे।
एक अपराधी का सुसज्जित स्वागत बिहार के लोगों के लिए खतरे की घंटी से कम नहीं है। शहाबुद्दीन का इस तरह लाव-लश्कर के साथ बाहर आना, भागलपुर से सिवान तक के रास्ते में टोल-टैक्स ना देना इस बात को उजागर कर रहा है कि बिहार में आतंक और दहशत का काफिला चल पड़ा है।
शहाबुद्दीन के जमानत मिलने के पीछे इस बात को कारण माना जा सकता है कि 2014 में हुई राजीव रौशन हत्या मामले में उनके खिलाफ मुकदमा चलाने को टाला गया। इस बात के बावजूद कि पटना हाई कोर्ट ने राज्य के आला अधिकारियों और सिवान जिले के दंडाधिकारी को निर्देश दिया था कि राजीव रौशन हत्याकांड को सुलझाने में विलंब ना किया जाये। ना सिर्फ हाईकोर्ट के निर्देश को टाला गया बल्कि शहाबुद्दीन के खिलाफ क्राइम कंट्रोल एक्ट (सी सी ए) लगाने की कोशिशें भी नहीं की गई।
नीतीश की बेबसी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब शहाबुद्दीन के बयान को लेकर लालू प्रसाद यादव से सवाल पूछा गया तो वो भी उसके बयान से सहमत दिखे।
सवाल तो यह कि क्या यह वही नीतीश हैं जो सन् 2005 में शहाबुद्दीन को सलाखों के पीछे धकेलने का दम रखते थे लेकिन अब नीतीश राजनीतिक तौर पर अपंग महसूस कर रहे हैं तभी तो उनमें इतनी भी ताकत नहीं कि वो शहाबुद्दीन के बेल के खिलाफ अपील कर सकें। क्या राजद के साथ समझौते ने नीतीश को इस कदर बेबस कर रखा है? नीतीश कुमार को यह ज्ञात होगा कि भाजपा का दामन छोड़ने वाले नीतीश को जनता अब एक मौकापरस्त नेता मान रही होगी। लेकिन साथ ही इस मामले में अगर वो जल्द कुछ ना कर पाये तो जनता की नज़रों में वो एक कमज़ोर नेता साबित होंगे। एक ऐसा नेता जो अपने राज्य के मसलों को संभालने और साधने में कमज़ोर है तो फिर देश की बागडोर के सपने देखना नीतीश की मूर्खता होगी।