श्वेता रंजन, नई दिल्ली
पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव से पहले हर पार्टी मतुआ समुदाय को रिझाने में लगा है। वैसे तो बंगाल की करीब 9 करोड़ आबादी में (करीब 7 करोड़, 33 लाख वोटर) में मतुआ समुदाय की आबादी महज 35 लाख है। तो फिर ऐसा क्या है कि मतुआ समुदाय चुनाव से ठीक पहले इतना महत्त्वपूर्ण बन गया है। कुछ ऐसा कि यह समुदाय किंग मेकर की भूमिका निभाता दिख रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि मतुआ समुदाय चुनावी लिहाज से महज 21 सीटों पर भारी प्रभाव रखता है।
बंगाल के तीन जिलों नॉर्थ 24 परगना, दक्षिण 24 परगना और नदिया में 21 विधानसभा सीटें और 16 फीसदी मतुआ मतदाता हैं। इस समुदाय की भूमिका किंगमेकर की इसलिए बन जाती है क्योंकि यह समुदाय हार और जीत तय करने का दम रखते हैं। मतुआ समुदाय के जरिए बीजेपी बंगाल में नागरिकता कानून को पेश कर ममता को हिंदू विरोधी साबित करने की कोशिश में है।
तो चलिए पहले जान लेते हैं क्या है मतुआ समुदाय-
दरअसल मतुआ समुदाय के लोग पूर्वी पाकिस्तान से आते हैं। मतुआ संप्रदाय की शुरुआत 1860 में अविभाजित बंगाल में हुई थी। यह समुदाय चतुर्वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) की व्यवस्था को खत्म करन की मूल भावना पर आधारित है। हरिचंद ठाकुर के वंशजों ने इस संप्रदाय की स्थापना की थी। नॉर्थ 24 परगना जिले के ठाकुर परिवार का राजनीति से गहरा संबंध रहा है। 1962 में हरिचंद ठाकुर के प्रपौत्र प्रमथ रंजन ठाकुर कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में पश्चिम बंगाल विधान सभा के सदस्य बने थे। तब से मतुआ समुदाय राजनीतिक समीकरण में अहम भूमिका निभाता रहा है। यह समुदाय 1947 में बांग्लादेश से बंगाल आया था। भारत में इस समुदाय की लड़ाई यहां की नागरिकता हासिल करना है। जिससे ये अबतक वंचित हैं। देश के विभाजन के बाद से मतुआ (मातृशूद्र) समुदाय नागरिकता को लेकर मांग करता रहा है। दिलचस्प तो यह है कि इनके पास वोट का अधिकार तो है, लेकिन नागरकिता नहीं।
सीएए का मुद्दा
उत्तर बंगाल में सबसे ज्यादा प्रभाव रखने वाला यह समुदाय देश के विभाजन के बाद भारत आया था। विभाजन के बाद भी पूर्वी पाकिस्तान से लोग आते रहे। लगभग तीन करोड़ लोग या तो इस समुदाय से सीधा संबंध रखते हैं या फिर उसके प्रभाव के जद में आते हैं। यही वजह है कि यह समुदाय हर राजनीतिक दल के लिए अहम हो जाता है। बंगाल में किस्मत आजमाने वाले राजनीतिक दलों के लिए यह एक वोट बैंक माना जाता है। बीजेपी इस मुद्दे को हथियार बना कर समुदाय का दिल जीतना चाह रहे हैं। मतुआ समुदाय बहुल इलाके ठाकुरनगर की रैली में अमित शाह ने कहा, ”हम CAA लेकर आए, बीच में कोरोना आ गया। ममता दीदी कहने लगी कि ये झूठा वादा है। हम जो कहते हैं वो करते हैं। जैसी ही ये वैक्सीनेशन का काम खत्म होता है, जैसे ही कोरोना से मुक्ति मिलती है, आप सभी को नागरिकता देने का काम बीजेपी सरकार करेगी।’
मतुआ समुदाय ने वामदलों और ममता पर भी दिखाया है भरोसा
मतुआ समुदाय ने हर दल को मौका दिया है। पहले वामपंथी दलों को इस समुदाय का समर्थन हासिल था। फिर यह समुदाय ममता के करीब रहा। अभी ऊंट किस करवट बैठेगा यह तो पता नहीं लेकिन यह तो तय है कि 2019 के लोकसभा चुनाव के समय ही इस समुदाय ने बीजेपी की ओर अपना झुकाव दिखा दिया था। तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस समुदाय के प्रमुख ठाकुर परिवार की प्रमुख वीणापाणि देवी (बोरो मां) का आशीर्वाद लेकर अपना चुनाव अभियान शुरू किया था। मतुआ समुदाय पर गहरा प्रभाव रखने वाले इस परिवार के शांतनु ठाकुर को लोकसभा का टिकट देकर बीजेपी ने आधा खेल तो तभी जीत लिया था। शांतनु ठाकुर ने जीत भी दर्ज की थी। बता दें कि इस परिवार से पहले भी तृणमूल कांग्रेस से लोकसभा सदस्य रह चुके हैं। राज्य में माकपा के कार्यकाल के दौरान इस परिवार के सदस्य विधायक भी रहे।
अब भाजपा नेताओं को अक्सर देखा जा सकता है इस समुदाय के लोगों के घर जाकर भोजन कर रहे हैं। बीजेपी मतुआ समुदाय को अपने समर्थन में ला कर बंगाल के हिंदू वोटरों में सेंध लगाने की कोशिश कर रही है। वहीं ममता बनर्जी को भरोसा है कि यह समुदाय उनके साथ है। ममता बोरो मां के करीब रही है। लेकिन हालात अब थोड़े बदल गये हैं क्योंकि अब बोरो मां नहीं है, ऐसे में माना जा रहा है कि परिवार का दो धड़ों में बंटना ममता को नुकसान पहुंचा सकता है।
2016 विधानसभा चुनाव में क्या था समीकरण
2016 विधानसभा चुनाव में 21 मतुआ प्रभाव वाले सीटों में टीएमसी ने 18 सीटें अपने नाम की थीं। सीपीएम-कांग्रेस गठबंधन को तीन सीटों पर जीत मिली थी। तब बीजेपी महज़ एक सीट ही अपने नाम कर पाई थी। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में काफी कुछ बदल सा गया था। तब बीजेपी ने इन 21 सीटों में से 9 पर बढ़त हासिल की थी। टीएमसी का झंडा तब भी बुलंद था, पार्टी 12 सीटों पर बढ़त बनाने में कामयाब रही थी।