स्मिथा सिंह, मुंबई
उम्र कभी हौसलों पर हावी नहीं होती, यदि जज्बा कुछ जीत जाने का हो तो परिस्थितियां खुद-ब-खुद इंसान के अनुकूल हो ही जाती हैं। कुछ ऐसी ही कहानी है एक उम्रदराज ऑटो ड्राइवर देसराज की। इनकी कहानी को ह्यूमन्स ऑफ बॉम्बे ने अपने फेसबुक पेज पर शेयर किया तो मदद के लिए सैकड़ों हाथ आगे आए। थकती उम्र में भी इस शख्स ने कैसे विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष कर अपना यहां तक का सफर पूरा किया, यह उन लोगों के लिए एक प्रेरणा है जो असफलता और वक्त की मार से हताश होकर बैठ जाते हैं। इस लेख में पढ़िए एक ऐसे दादा की कहानी, जिसने बेटों की मौत के बाद भी वक्त की मार के सामने हार नहीं मानी।
एक पिता के लिए इससे बड़ा दुख कोई नहीं होता कि वो अपने जवान बेटे की अर्थी को कंधा दे, और इससे बड़ी बदनसीबी क्या होगी कि 75 साल के देसराज अपने दो-दो जवान बेटों का दाह संस्कार कर चुके हैं। मुंबई के बुजुर्ग ऑटो ड्राइवर देसराज अपने बुलंद हौसलों की वजह से आज सुर्खियों में छाए हैं, लेकिन इनकी कहानी ऐसी है कि सुनकर किसी की भी आंखें डबडबा जाएं। देसराज मुंबई के खार डांडा इलाके में ऑटो रिक्शा चलाते हैं और इसी कमाई से वो अपने बेटों के बच्चों का भरण-पोषण करते हैं। तीन में से दो जवान बेटों की मौत देख चुके देसराज के बूढ़े कंधे जिम्मेदारियों से इस कदर बोझिल हैं कि एक ऑटो ही इनका जीवन बन चुका है।
दो जवान बेटों की अर्थी उठाई
6 साल पहले देसराज के बड़े बेटे की मौत हुई। उनका 40 साल का बेटा हर दिन की तरह उस दिन भी काम पर निकला, लेकिन वापस नहीं लौटा।एक हफ्ते बाद उसकी डेड बॉडी ऑटो में मिली। देसराज बताते हैं कि जवान बेटे की मौत से वे पूरी तरह टूट गए थे, लेकिन जिम्मेदारियों के बोझ ने उन्हें फिर खड़ा किया और वे अगले ही दिन ऑटो चलाने निकल पड़े।साल बाद उनके दूसरे बेटे ने भी खुदकुशी कर ली। एक बूढ़े पिता के लिए इससे बड़ा गम और क्या होगा कि जिस उम्र में उसे बेटों के सहारे की जरूरत थी उसी थकती उम्र में देसराज ने दो-दो जवान बेटों की अर्थी उठाई। देसराज कहते हैं कि बेटों की मौत ने उन्हें जीते जी मार दिया है, लेकिन दो बहू और उनके चार बच्चों की जिम्मेदारी है जो उन्हें जिंदा रखे हुए है। आज देसराज इस उम्र में सात परिजनों का अकेला सहारा हैं, देसराज ऑटो चलाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। मुंबई जैसे शहर में देसराज के पास भले सिर ढकने को जगह ना हो लेकिन हौसले बुलंद हैं, क्योंकि उनकी आंखों में ख्वाब है पोती को टीचर बनाने का, और इसी ख्वाब को पूरा करने के लिए देसराज ने अपना घर तक बेच दिया।
जब देसराज के छोटे बेटे की मौत हुई उस वक्त उनकी पोती 9वीं क्लास में पढ़ती थी, बेटे का दाह-संस्कार कर घर पहुंचे दादा से पोती ने सवाल किया, क्या अब मैं स्कूल छोड़ दुंगी? पोती का सवाल सुन दादा ने कहा कभी नहीं, आप जितना चाहें पढ़ाई करें। इसके बाद देसराज ने और ज्यादा वक्त तक ऑटो चलाने का फैसला किया, वे सुबह 6 बजे ही ऑटो लेकर निकल जाते और देर रात तक ऑटो चलाते लेकिन फिर भी महज 10 हजार रुपये तक ही जुटा पाते। 6 हजार रुपये बच्चों के स्कूल की फीस भरने के बाद महज 4 हार रुपये में घर के 7 सदस्यों का भरण पोषण बड़ी मुश्किल से हो पाता। देसराज बताते हैं कि एक बार जब उनकी पत्नी की तबीयत बिगड़ी तो इलाज के लिए भी आस-पड़ोस से मदद मांगनी पड़ी। इतनी मुश्किलों के बीच देसराज के हौसले बीते साल तब और मजबूत हुए जब उन्हें उनकी पोती ने बताया कि उसे 12वीं में 80 प्रतिशत मार्क्स हासिल हुए हैं। उस दिन देसराज इतने खुश थे कि उन्होंने पूरा दिन लोगों को ऑटो की मुफ्त सवारी कराई।
ऑटो ही है इस बुजुर्ग का घर
देसराज की पोती ने उन्हें बताया कि वो टीचर बनना चाहती है और दिल्ली जाकर बीएड करना चाहती है, एक बुजुर्ग दादा के लिए पोती के इस ख्वाब को पूरा करना मुश्किल था लेकिन देसराज के मजबूत हौसलों ने उन्हें हिम्मत दी और पोती के सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने अपना घर बेचकर बीएड की फीस चुकाई। उन्होंने पत्नी और बहुओं सहित पोतों को गांव में रहने के लिए भेज दिया और खुद मुंबई में रहकर ही ऑटो चलाने लगे। वे ऑटो में ही रहते हैं, ऑटो में ही खाते हैं, और ऑटो में ही सो जाते हैं। देसराद के लिए ये ऑटो ही उनका रोजगार है और घर भी।
एक साल से बिना छत के ऑटो में गुजारा कर रहे देसराज कहते हैं कि, ईमानदारी से कहूं तो जीवन खराब नहीं है, थकान से बैठे-बैठे पैरों में दर्द होता है लेकिन जब पोती फोन पर बताती है कि वो क्लास में फर्स्ट आई है तो मेरा सारा दर्द मिट जाता है। बुढ़ापे की दहलीज़ पर खड़ा ये शख्स बेटों की उन अधूरी जिम्मेदारियों को पूरा कर रहा है जिनसे बेटे मुंह मोड़ गए। इंतजार है तो बस पोती के टीचर बनने का। बुजुर्ग दादा का ख्वाब है कि पोती की सफलता पर उसे गले लगाएं, देसराज कहते हैं कि ये उनके लिए गौरव की बात होगी क्योंकि उनकी पोती परिवार की पहली ग्रेजुएट बनने जा रही है। उनका कहना के कि जब उनकी पोती ग्रेजुएट होगी तब वे पूरे हफ्ते ऑटो में फ्री सवारी कराएंगे।
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
उम्र का आंकड़ा जितना बड़ा है, देसराज के हौसलों भी उनते ही मजबूत हैं, बेटों की मौत ने उन्हें भले कमजोर किया हो लेकिन जिम्मेदारियों फिर उठ खड़ा होने की वो हिम्मत दी है कि बिना छत भी वे मुंबई जैसे शहर में जीवनयापन कर रहे हैं, साथ ही परिवार के भरण पोषण के लिए भी बंदोबस्त करते हैं। इस बूढ़े दादा की हारी हुई बेबस-मुफ्लिस जिंदगी की उम्मीद टिकी हैं पोती पर, जिससे टीचर बनने का ख्वाब सजाए दादा दिनभर ऑटो चलाते हैं, और थक हार कर उसी ऑटो में सो जाते हैं। देसराज के जीवन संघर्ष की कहानी जिनती मार्मिक है उतनी प्रेरणादायी भी। जो ये सिखाती है कि बेबसी और मुफ्लिसी में भी यदि इंसान हिम्मत न हारे तो हर मंजिल मुमकिन है, क्योंकि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
Humans of Bombay के फेसबुक पेज पर जबसे इस बुजुर्ग की कहानी शेयर हुई है, सोशल मीडिया पर तमाम लोगों ने मदद के हाथ बढ़ाए हैं, और इस दादा के हौसलों को सलाम किया है। गुंजन रत्ती नाम की एक फेसबुक यूजर ने बुजुर्ग ऑटो चालक देसराज की आर्थिक सहायता के लिए फंड इकट्ठा करने की मुहिम चलाई है। जिसके जरिए सैकड़ों लोगों ने मदद दी है और 6 लाख के करीब की राशि इकट्ठी भी हो चुकी है। मदद के लिए सोशल मीडिया पर बढ़े ये हाथ आज भले इस बुजुर्ग दादा की तकलीफों पर थोड़े मरहम का काम करे, लेकिन अभीतक के सफर में इन्होंने जिस दर्द और मुसीबत को झेलकर अपने जीवन की गाड़ी यहां तक पहुंचाई है, देसराज का वो हौसला वाकई सलाम का हकदार है। जो ये साबित करता है कि बुजुर्ग कभी बेबस नहीं होते,वो उम्र के किसी भी पड़ाव पर जिम्मेदारियां उठाने में सक्षम हैं उन्हें बुढ़ापे में जिस सहारे की जरूरत होती है वो है अपनी औलाद का प्यार, इसलिए बुजुर्गों को बेबस न समझें।