स्मिथा सिंह, नई दिल्ली
जब भी हम ग्लोबल वॉर्मिंग की बात करते हैं और लोगों से इस विषय के प्रति जागरुक होने की अपील की जाती है तो अधिकतर लोग विषय को हल्का का फिजूल समझकर नजरंदाज कर देते हैं, लेकिन दोस्तों प्रकृति हमारी किसी भी हरकत को नजरंदाज नहीं कर रही। पृथ्वी के प्राकृतिक खूबसूरती को अपनी सहूलियत के हिसाब से हम जिस बेतरतीब तरीके से तोड़ मरोड़ रहे हैं, उसी का नजीता है कि प्राकृतिक आपदाएं इंसानी जिंदगियों को निगल रही हैं। 7 जनवरी 2021 को उत्तराखंड के चमोली में आई आपदा, प्रकृति का एक कड़ा संदेश और ग्लोबल वॉर्मिंग का ही परिणाम था, जिसने कई जिंदगियों को एक झटके में निगल लिया। ऋषिगंगा ग्लेशियर के टूटने से इतनी विकराल बाढ़ आई कि लोगों को संभलने का मौका नहीं मिला। इस ग्लेशियर के टूटने/फटने को नजरंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि नजरंदाज किया तो भविष्य में ग्लेशियरों के पिघलने से ही पृथ्वी पानी–पानी होगी, इस बात को नकारा नहीं जा सकता।
दोगुनी तेजी से पिघल रहे हैं हिमालय के ग्लेशियर
साइंस एडवांस जर्नल में साल 2019 जून में प्रकाशित हुई एक स्टडी के मुताबिक 21वीं सदी की शुरुआत के बाद से ही हिमालय के ग्लेशियर दोगुनी तेजी से पिघल रहे हैं और इन ग्लेशियरों के पिघलने की वजह है बढता तापमान, या कहिए ग्लोबल वॉर्मिंग। इस स्टीड में बताया गया था कि इंडिया, चीन, नेपाल और भूटान में 40 सालों के दौरान ली गई सेटेलाइट तस्वीरों की एक स्टडी में पता चला कि जलवायु परिवर्तन की वजह से हिमायल के ग्लेशियर यानि हिमखंड धीरे–धीरे खत्म हो रहे हैं और 40 साल में ग्लेशियरों का एक-चौथाई हिस्सा खत्म हो गया है। अस्तितव खोते इन ग्लेशियरों का इंसानों पर प्रभाव ये होगा कि भारत समेत कई देशों को जल आपूर्ति की समस्या का सामना करना पड़ेगा। इस स्टडी में ये भी कहा गया कि साल 1975 से 2000 की तुलना में साल 2000 के बाद से ये ग्लेशियर दोगुनी तेजी से पिघल रहे हैं। शोधकर्ताओं ने 4 दशकों में बदली तस्वीर के लिए बढ़ते तापमान को जिम्मेदार माना। स्टडी में कहा गया कि अलग-अलग जगह के तापमान में अंतर है लेकिन साल 1975 से 2000 की तुलना में 2000 से 2016 के बीच इस तापमान में औसतन 1 डिग्री का इजाफा हुआ है।
इस स्टडी में बताई गई बातें हम चाहें तो इग्नोर कर दें चाहें तो गंभीरता से इनपर विचार कर ग्लोबल वॉर्मिंग के विषय के प्रति पूरी तरह जागरुक हों, क्योंकि यदि जागरुक न हुए तो ऋषिगंगा जैसे कितने ही ग्लेशियर भविष्य में बाढ़ बनकर इंसानों पर आपदा बरसाएंगे। पृथ्वी के तापमान में हो रही बढ़ोत्तरी और इसके चलते मौसम में हो रहे तमाम बदलाव, ये कितनी बड़ी समस्या है, हम समझना ही नहीं चाह रहे। क्योंकि आम इंसान को लगता है कि ये सांइस की भाषा है, इसे साइंटिस्ट ही समझें, लेकिन इस विषय पर हर इंसान को अफने अपने स्तर पर सोचने और गंभीर होने की जरूरत है, क्योंकि हरएक की भागीदारी ही 21 सदी के इस सबसे बड़े खतरे को टाल सकती हैं।
ऋषिगंगा ग्लेशियर फटने से आई बाढ़ ने रैणी और तपोवन में ऐसी प्रलय मचाई की उफान मारती लहरों में कई जिंदगियां खत्म और 150 से ज्यादा लापता हो गईं। पानी के इस प्रचंड तांडव के शांत होने के बाद शुरु हुए राहत-बचाव कार्य में मलबे से निकले शव बाढ़ की भयावह कहानी कहते नजर आए। रविवार की सुबह चमोली में आई इस जल प्रलय को जिसने भी देखा वो सिहर गया, चारों और चीख पुकार थी लेकिन ऋषिगंगा और धौगीगंला नदी के प्रचंण वेग की कंपाने वाली आवाज में इंसानी आवाज दब गई। हजारों फीट की ऊंचाई से आते ऋषिगंगा और धौलीगंगा के उफान को ऊंचाई पर खड़े लोगों ने जैसे ही देखा, ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट में काम कर रहे मजदूरों को आगाह करने के लिए काफी चीखं-पुकार की लेकिन इस पुकार की पहुंचने से पहले जल प्रलय तमाम जिंदगियों को बहा ले गई। बैराज प्रोजेक्ट एरिया पूरी तरह खत्म हो गया। जहां सैकड़ों लोग काम कर रहे थे वहां इस प्राकृतिक प्रकोप के बाद सन्नाटा पसर गया।
उत्तराखंड की ये आपदा एक बार फिर 2013 की केदारनाथ आपदा के जख्म ताजा कर गई। साथ ही कई सवाल फिर से सुलग उठे। क्या इसे सिर्फ प्राकृतिक आपदा कहना सही होगा? क्या इसके लिए इंसानी गतिविधियां कहीं जिम्मेदार नहीं? क्या इंसान ऐसी आपदाओं के प्रकोप को रोकने के लिए समर्थ नहीं है? बेशक है, बस हम सुविधाओं के इतने आदि हो चले हैं कि परिणामों की चिंता किए बिना प्रकृति से खिलवाड़ करते हैं और सुविधाओं के भोग के बाद ऐसी आपदाओं का शिकार होते हैं।