चुनाव आयोग ने निर्देश दिये थे कि बिहार में चुनाव के दौरान राजनैतिक पार्टियों को अपने दागी उम्मीदवारों के बारे में सार्वजनिक रूप से घोषित करना पड़ेगा। इसी निर्देश के पालन के तहत तेजस्वी यादव के नेतृत्व में चल रही राजद ने अपनी आधिकारिक बेवसाइट पर अपने दागी उम्मीदवारों का विवरण दिया है। विवरण के मुताबिक पार्टी के 38 उम्मीदवारों के खिलाफ आपराधिक मामले लंबित हैं। राजद ने दागी नेताओं को टिकट देने का कारण भी बताया है। इसमें कहा है कि ये सबसे योग्य उम्मीदवार हैं और अपने क्षेत्र में खासे लोकप्रिय हैं। पार्टी को अन्य उम्मीदवारों की तुलना में इन उम्मीदवारों के जीतने की संभावना अधिक दिखी है, इसलिए पार्टी ने इनपर भरोसा दिखाया है।
राजद की लिस्ट में कई नेता ऐसे हैं जिन धोखाधड़ी, रंगदारी, मार पीट जैसे संगीन आरोप हैं। इसमें अनंत सिंह, राहुल तिवारी, सुरेंद्र यादव, विजय प्रकाश जैसे नेताओं समेत कईयों के नाम शामिल है।
अब देखते हैं एडीआर और बिहार इलेक्शन वॉच की उस ताजा रिपोर्ट को जिसमें बताया गया है कि बिहार की सभी राजनैतिक पार्टियों में दागी नेताओं की पैठ है। अगर साल 2005 से 2019 तक के सभी चुनाव का विश्लेषण किया जाये तो यह पता चलता है कि इस दौरान सबसे ज्यादा दागी नेताओं को टिकट देने वाला दल राजद है। वही सबसे ज्यादा दागी नेता चुनाव जदयू के टिकट पर जीते हैं। भाजपा इस कड़ी में दूसरे स्थान पर है।
देखा जाए तो कोई भी दल इसमें पीछे नहीं है। इस मामले में कांग्रेस, बसपा, लोजपा और वामपंथी दल शामिल है। हैरान करने वाली बात तो यह है कि रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि बिहार में साफ-सुथरी छवि के नेता के जीतने का प्रतिशत सिर्फ 5 फीसदी है। वहीं दागी नेताओं के जीतने का प्रतिशत 15 फीसदी है। तो अब आप ही सोचिए आप किस प्रकार के समाज या प्रदेश की रचना कर रहे हैं। अगर राज्य की बागडोर ऐसे नेताओं के हाथ में होगी तो विकास तो दूर की चीज़ ही बन कर रह जाएगी। आपने कभी सोचा है राज्य में इंवेस्टमेंट क्यों नहीं आते, प्रदेश के युवा दूसरों राज्यों की ओर मुंह क्यों ताकते हैं, औद्योगिक ईकाइयां क्यों नहीं लगती। नहीं सोचा है तो सोचिए।
राज्य में बात स्पेशल कोर्ट द्वारा निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को सजा मुकर्रर करने ही हो या फिर एक वर्ष में दागियों के मामलों को स्पीडी ट्रायल द्वारा निपटाने की, किसी का भी असर होता दिख नहीं रहा है। 2014 में ही एक याचिका के तहत एक वर्ष में मामलों को निपटाने का आदेश भी दिया गया था, लेकिन ऐसी प्रक्रिया नहीं अपनायी गयी।
अक्सर देखा जाता है कि चुनाव सुधार को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच अंतर्विरोध की बातें उठती हैं। विपक्षी दल चुनाव सुधार की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। लेकिन सत्ता की चाबी हाथ में आते ही यह मुद्दा छूमंतर हो जाता है। हाल के वर्षों में भी ऐसा ही दिखा है। सभी पार्टियों ने दागी नेताओं को उम्मीदवार बनाया। नतीजा यह रहा कि बीते 10 सालों में आपराधिक मामले घोषित करने वाले सांसदों में 122% का इज़ाफा देखा गया।
अब तो यही घड़ी आ गई है कि जनता स्वविवेक से काम ले। आपको बता दें कि न्यायालय ने कई निर्देश दिये भी हैं, जैसे–प्रत्याशियों को अपनी पृष्ठभूमि के बारे में मीडिया में तीन बार जानकारी देना, आयोग के फाॅर्म में मोटे अक्षरों में अपराधों की जानकारी देना, पार्टियों को आपराधिक उम्मीदवारों की जानकारी देना, पार्टियों को अपनी वेबसाइट पर दागी उम्मीदवारों की जानकारी डालना। राजद ने इस जानकारी को विवरण तो दिया है लेकिन आने वाले समय में यह देखना होगा कि अपराधियों को अपना उम्मीदवार घोषित करने वालों पर क्या कार्रवाई होती है।
पिछले चुनावों की बात करें तो न्यायालय के इस आदेश का पालन नहीं किया गया. आगामी विधानसभा चुनाव में न्यायालय के सख्त आदेश और आयोग के अपील के बावजूद पार्टियों द्वारा आपराधिक चरित्र के जन प्रतिनिधियों की पत्नियों को उम्मीदवार बनाया जा रहा है। ताकि अपराध का गेम चलता रहे। कुर्सी बनी रहे।
साल 2018 में देश के 21% विधायकों-सांसदों को दागी पाया गया था। उस समयचुनाव आयोग से मिली जानकारी के मुताबिक, देश के 4,856 विधायकों और सांसदों में से 1,024 के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे। यह कुल विधायकों-सांसदों का 21% है, यानी हर 5वां नेता आरोपी है। इनमें से 64 (56 विधायक और 8 सांसद) के खिलाफ अपहरण के केस हैं। 51 विधायकों-सांसदों पर महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले दर्ज हैं। इनमें अपहरण के सबसे ज्यादा मामले उत्तरप्रदेश-बिहार और महिलाओं के खिलाफ अपराध के सबसे ज्यादा मामले महाराष्ट्र के सांसदों-विधायकों पर दर्ज हैं। इस मसले पर एक याचिका दायर की गई थी जिसपर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि देश की राजनीतिक प्रणाली का अपराधीकरण नहीं होने देना चाहिए। शीर्ष न्यायालय ने यह टिप्पणी गंभीर अपराधिक मामलों में आरोपी व्यक्तियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए की थी। हालांकि साथ ही स्पष्ट किया कि कानून बनाना हमारा काम नहीं। यह संसद का काम है। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में बनी 5 जजों की बेंच ने कहा, कोर्ट को लक्ष्मण रेखा पार नहीं करनी चाहिए और न ही संसद के कानून बनाने वाले अधिकारों में दखल देना चाहिए। हम कानून बनाएं, ये कोर्ट के लिए लक्ष्मण रेखा है। हम कानून नहीं बनाते। वहीं, केंद्र की ओर से पेश अटॉर्नी-जनरल केके वेणुगोपाल ने भी इन याचिकाओं का विरोध किया। उन्होंने कहा, यह मामला संसद के विशेषाधिकार के तहत आता है। वैसे भी एक आरोपी को तब तक दोषी नहीं कह सकते, जब तक उसके खिलाफ आरोप तय न हो जाएं।
दरअसल ऐसे मसलों पर यानि राजनीति में अपराधीकरण को रोकने के लिए कानून में व्यापक बदलाव करने की जरूरत है। दागी नेताओं के साथ उनकी पत्नियों और परिजनों को राजनीति में प्रवेश बंद करने को लेकर भी प्रयास करने होंगे। सिरे से इन उम्मीदवारों को जनता खारिज करे तभी बात बनेगी।
अगर बात मौजूदा कानून की करें तो केवल उन लोगों को चुनाव लड़ने से वंचित किया जाता है, जिन्हें न्यायालय ने दोषी पाया है। जरूरत है कि कानून में संशोधन किया जाए जिससे सुनिश्चित हो सके कि ऐसे व्यक्तियों के चुनाव लड़ने पर पूरी तरह से पाबंदी हो। जिनके खिलाफ आरोपपत्र दाखिल हो, जिसमें पांच साल या उससे अधिक की सजा हो, हत्या, बलात्कार, डकैती, अपहरण, तस्करी जैसे जघन्य अपराध के दोषियों को स्थायी रूप से चुनाव लड़ने से वंचित किया जाये।