स्मिथा सिंह, नई दिल्ली
साल 2021 दस्तक दे रहा है, लेकिन गुजर चुका 2020 बहुत कुछ ले कर गया है और देकर गया है बहुत से दर्द और चोटिल करने वाली दुखद यादें। कोरोना काल के नाम से ये साल इतिहास के पन्नों में दर्ज होगा, साथ ही दर्ज होंगी कुछ ऐसी दुखद तारीखें भी जब बहुत से नामी चेहरों ने संसार छोड़ा। जीवन है तो मृत्यु भी निश्चित है लेकिन साल 2020 में उठे जनाजे दर्द को दोगुना कर गए। मौजूदै वर्ष में दुखद दिनांक अन्य बरसों की अपेक्षा कुछ ज्यादा रहे या कहिए कि कोरोना कष्ट की वजह से दर्द से हर कोई बोझिल रहा। आम आदमी हों या सिने सितारे या फिर राजनेता। हर किसी ने शोक की शामें बाकी सालों से ज्याद इस साल में देखी हैं। आईये बताते हैं आपको कि साल 2020 में किन-किन राजनीतिक हस्तियों ने दुनिया को विदा कह दिया।
अमर सिंह (1 अगस्त)
सियासत के आसमान में धूमकेतू सी पहचान रखने वाले एक नामचीन राजनीतिज्ञ थे, अमर सिंह जिन्होंने 1 अगस्त 2020 को अपनी आंखें मूंदी। बीजेपी के राज्यसभा सदस्य और समाजवादी पार्टी के पूर्व नेता अमर सिंह ने लंबी बीमारी के बाद 64 साल की उम्र में सिंगापुर के एक अस्पताल में आखिरी सांस ली।
अमर सिंह राजनीति की दुनिया की एक ऐसी मिलनसार शख्सियत थे जो दोस्त बनाने और दोस्ती निभाने की विद्या में माहिर थे। सियासी गलिय़ारों से लेकर इंटरटेनमेंट, स्पोर्ट्स और बिजनेस वर्ल्ड तक, हर जगह उनके दोस्त थे। यहां तक कि उनकी दोस्ती का असर वॉशिंगटन में व्हाइट हाउस तक था। ये अमर सिंह की दोस्ती का ही प्रभाव था कि उनके बुलावे पर बिल क्लिंटन लखनऊ चले आए थे। दोस्ती की मिठास बांटने में अमर इतने उस्ताद थे कि विपक्षी दलों के बड़े नेताओं से भी उनके अच्छे संबंध थे। अद्भुत प्रतिभा के धनी अमर सिंह को भारतीय राजनीति का मिडिल मैन और मिडिएटर तक कहा जाता था।
27 जनवरी 1956 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में पैदा हुए अमर सिंह का लालन पालन कोलकाता में हुआ। उनके पिता हरीशचन्द्र सिंह एक बिजनेस में थे और चाहते थे कि अमर सिंह उनके बिजनेस को संभालें, इसलिए वे अमर सिंह की स्कूली शिक्षा को बहुत महत्व नहीं देते थे। लेकिन अमर सिंह अच्छी शिक्षा चाहते थे सो उन्होंने कोलकाता के सेंट जेवियर स्कूल से पढ़ाई की और वहीं से लॉ कॉलेज से डिग्री ली। एक बिजनेस मैन के बेटे होते हुए भी अमर सिंह ने शिक्षा के उस स्तर तक पढ़ाई की जहां तक हर किसी की सोच होती है।
साल 1987 में शादी के बाद दो बेटियों के पिता बनने तक अमर सिंह बिजनेसमैन बन चुके थे। काम के दौरान जब राजनीतिक संबंध बनने लगे तो वो खुद को राजनीति में आने से नहीं रोक पाए। उन्हें राजनीति में लाने का श्रेय जाता है उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे वीर बहादुर सिंह को। इसके बाद अमर सिंह की मुलाकात कांग्रेस के कद्दावर नेता माधव राव सिंधिया से हुई, लेकिन फिर बुलंदी की सीढ़िया चढ़ते हुए माधव राव सिंधिया और अमर सिंह के रास्ते अलग हो गए। इसी बीच उनकी मुलाकात मुलायम सिंह से हुई और जैसे-जैसे मेलो-जोल बढ़ता गया अमर सिंह, मुलायम के भरोसेमंद होते गए और समाजवादी पार्टी में शामिल होने के बाद अमर सिंह ने सियासी जगत की तमाम बुलंदियां फतह कीं।
साल 1996 में उन्होंने पहली बार राज्यसभा में एंट्री ली और 2002 में फिर से राज्य सभा भेजे गए और फिर पार्टी के महासचिव का ओहदा पाया। भारतीय राजनीति में संसाधनों को जुटाने में एक्सपर्ट थे अमर सिंह। उन्होंने अपने हुनर से मुलायम की देसी पार्टी को नया कलेवर दिया, बॉलीवुड स्टार्स से लेकर कॉर्पोरेट सेक्टर तक की तमाम बड़ी हस्तियों को समाजवादी पार्टी से जोड़ने में अमर सिंह सफल रहे। जया बच्चन, जया प्रदा और संयज दत्त जैसे सितारों को सिनेमा से सत्ता तक लाने का श्रेय भी अमर सिंह को जाता है। अपनी मेहनत और काबीलियत के बल पर अमर सिंह ने समाजवारी पार्टी में वो जगह हासिल की कि उनके बिना पार्टी में कोई फैसला नहीं होता था। इस वजह से आजम खान और बेनी प्रसाद जैसे कद्दावर नेताओं ने पार्टी छोड़ी, इसके बाद जब साल 2007 में पार्टी विधानसभा चुनाव में हारी तो हार का ठीकरा अमर सिहं के सर फूटा। 2009 के लोकसभा चुनाव तक पार्टी में बहुत कुछ अमर सिंह की दिशा के विपरीत हो चला, जिसके चलते साल 2010 में उन्होंने सपा के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया। कभी बेहद करीबी रहे अमिताभ के साथ उनके रिश्तों में कड़वाहट भी समाजवादी पार्टी छोड़ने के बाद ही आई, क्योंकि वे चाहते थे कि जया भी पार्टी छोड़ दें लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
सपा से अलग होना अमर सिंह की ज़िंदगी के सबसे दुखद लम्हों में से एक था। इसके बाद अमर सिंह ने राष्ट्रीय लोकमंच के नाम से नई पार्टी बनाई लेकिन समाजवादी पार्टी के आगे अमर की पार्टी खड़ी न हो सकी।
ये वो दौर था जब एक वक्त पर मजबूत जोड़ी मानी जाने वाली अमर और मुलायम की दोस्ती में अखिलेश नाम की दरार पड़नी शुरु हुई। समाजवादी पार्टी से अलग होने के बाद अमर सिंह ने मुलायम व अखिलेश के खिलाफ काफी तल्ख तेवर दिखाए लेकिन मुलायम सिंह ने कभी उनके खिलाफ बयानबाजी नहीं की। शायद यही वजह थी कि दोनों बेसहारा एक बार फिर एक-दूसरे का सहारा बने और साल 2016 में सपा के समर्थन से एक बार फिर अमर सिंह राज्यसभा में पहुंचे।
राजनीतिक जीवन हो या अमर सिंह की दोस्ती, दोनों में उतार-चढ़ाव बहुत रहा। अमर राजनीति में जितने सफल रहे, कुछ वक्त के लिए राजनीतिक पटल से गायब भी हुए, दोस्ती के लिए पहचाने गए तो दोस्ती में पड़ी दरारों के लिए भी चर्चाओं में रहे फिर चाहें वो मुलायम से हो, अमिताभ से या अंबानी परिवार से। अमर सिंह आज हमारे बीच भले नहीं हैं लेकिन राजनीतिक जगत में उन्हें सदा ऐसे राजनेता के रुप में याद किया जाएगा जिसने दोस्त की मदद के लिए हर नीति अपनाई और जब बात खिलाफत की हुई तो सार्वजनिक मंच से तल्खियां भी दिखाईं। अमर सिंह के रूप में सियासत को एक ऐसा सूत्रधार मिला था जिसे फिल्मी दुनिया, राजनीति और कॉर्पोरेट को एक मंच पर इकट्ठा करने का महारथ हासिल था लेकिन साल 2020 ने उस सबल सूत्रधार को छीन लिया जो सियासत और ग्लैमर का कॉकटेल था।
प्रणब मुखर्जी (31 अगस्त)
प्रणब मुखर्जी, राजनीति की एक ऐसी महान शख्सियत जिसने 31 अगस्त 2020 को 84 साल की उम्र में अपनी आंखें मूंदी। प्रणब दा एक ऐसे प्रबल राजनेता थे जिनका राजनीति से कई दशकों का रिश्ता रहा लेकिन फिर भी वो विवादों से अछूते रहे। 11 दिसंबर 1935 को पश्चिम बंगाल में बीरभूम जिले के मिराती गांव में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे प्रणब मुखर्जी ने करियर के शुरुआती दिनों में एक क्लर्क, प्रोफेसर और पत्रकार, सभी कामों से अनुभव लिया और साल 1969 में अपने राजनैतिक सफर की शुरुआत की। साल 1969 में जब प्रणब मुखर्जी राज्यसभा के सदस्य बने तो उनका आधिकारिक घर राष्ट्रपति संपदा के पास था, प्रणब राष्ट्रपति भवन के ठाठबाट देखते रहते थे। एक दिन जब उन्होंने राष्ट्रपति की घोड़े वाली बग्गी को देखी तो अपनी बहन अन्नापूर्णा बनर्जी से कहा कि इस भव्य राष्ट्रपति भवन का आनंद लेने के लिए मैं अगले जन्म में घोड़ा बनना पसंद करुंगा, तो उनकी बहन ने कहा था कि ‘इसके लिए तुम्हें अगले जन्म तक रुकना नहीं पड़ेगा बल्कि इसी जन्म में तुम्हें इसमें रहने का अवसर मिलेगा’। बहन की भविष्यवाणी सही साहित हुई और प्रणब दा भारत के 13वें राष्ट्रपति बने। भारत के 13वें राष्ट्रपति और एक वरिष्ठ नेता, जिन्होंने अपने 50 साल से ज्यादा के राजनीतिक सफर में अलग-अलग वक्त पर भारत सरकार के कई मंत्रालयों में बड़े पदों का कार्यभार संभाला लेकिन एक सच ये भी है कि राजनीति में इतना ऊंचा मुकाम पाने वाले प्रणब दा को एक कसक जीवनभर सालती रही कि अपने राजनीतिक करियर में कई बार प्रभानमंत्री पद का प्रबल दावेदार होने के बाद भी वो देश के प्रधानमंत्री नहीं बन सके।
जसवंत सिंह (27 सितंबर)
बीजेपी के संस्थापक सदस्यों में रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह का 27 सितंबर, 2020 को 82 साल की उम्र में निधन हो गया। साल 2014 में घर के बाथरूम में गिरने से उनके सिर पर गहरी चोट आई थी जिसकी वजह से वे बीते 6 साल से कोमा में थे और अपने स्वभाव के अऩुरूप 6 साल वो इस स्थिति से लड़ते रहे। 27 सिंतबर को जसवंत जिन्दगी की जंग हार गए। 3 जनवरी 1938 को राजस्थान, बाड़मेर जिले के जसोला गांव में जन्मे जसवंत सिंह भारतीय जनता पार्टी के एक ऐसे नेता थे, जो भारतीय सेना में मेजर रहे और भारतीय जनता पार्टी के अपने राजनीतिक कार्यकाल के दौरान उन्होंने रक्षा मंत्रालय, विदेश मंत्रालय व वित्त मंत्रालय का कार्यभार संभाला।
विश्वभर में अपने अंग्रेजी ज्ञान के लिए पहचाने जाने वाले जसवंत सिंह ने अजमेर के मशहूर मेयो कॉलेज से पढ़ाई पूरी की थी। इंडियन मिलिट्री एकेडमी से ट्रेनिंग लेने के बाद साल 1957 में वे भारतीय सेना में भर्ती हुए। 1960 में अधिकारी पद प्राप्त होने के बाद जसवंत 1965 के भारत-पाक युद्ध में अपनी युनिट के कैप्टन रहे, और 1965 के भारत चीन सीमा विवाद के समय वे मेजर थे। 9 साल सेना में नौकरी करने के बाद साल 1966 में उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इसके बाद वे जोधपुर के महाराजा गज सिंह के निजी सचिव रहे। साल 1980 में जसवंत सिंह ने राज्यसभा में एन्ट्री ली और पहली बार बीजेपी के टिकट पर राज्य सभा के लिए चुने गए। सर्वाधिक प्रभावशाली नेताओं में गिने जाने वाले जसवंत अपने राजनीतिक जीवन में छह बार सांसद रहे। भले भारतीय जनता पार्टी के एक वर्ग ने जसवंत सिंह के साथ सहज महसूस न किया हो, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी और भैरों सिंह शेखावत जैसे कुछ एक नेताओं की वजह से जसवंत पार्टी में सफलता पूर्वक कायम रहे। वाजपेयी के विश्वासपात्र और करीबी माने जाने वाले जसवंत सिंह बातचीत की कला में निपुण एक ऐसे राजनेता थे जो बेहद शालीनता के साथ अपनी बात रखने में सक्षम थे।
उनके राजनीतिक जीवन की एक खामी ये भी थी कि वो कभी आम वोटर से नहीं जुड़ पाए, हालांकि 1989 में जोधपुर, 1996 में चित्तौढ़गढ़ और 2009 में दार्जलिंग से जीत पाई। सियासी जमीन की जनता को उनसे सदा ये शिकायत रही कि जीत के बाद उन्होंने कभी जनता की सुध नहीं ली। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के हनुमान कहे जाने वाले जसवंत ने भारत-पाकिस्तान के बीच रिश्ते सुधारने से लेकर 1998 में परमाणु परीक्षण के बाद पूरी दुनिया से भारत के रिश्तों को मजबूत करने तक के अपने सियासी सफर में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। जसवंत सिंह ने कई अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों और सुरक्षा एवं विकास के मुद्दों पर कई किताबें लिखी, लेकिन उनकी लिखी एक किताब जिन्ना: इंडिया-पार्टीशन, इंडिपेंडेंस’ ही जसवंत के पार्टी से बाहर होने की वजह बनी। जिन्ना पर लिखी अपनी इस किताब में जसवंत, जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष होने का सर्टिफिकेट देते नजर आए। इस किताब में उन्होंने सरदार पटेल और पंडित नेहरू को देश के विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहराया। इसी वजह से साल 2009 में जसवंत सिंह भारतीय जनता पार्टी से बाहर किए गये। ये दिन जसवंत सिंह के राजनीतिक करियर का सबसे कष्टकारी दिन था। जिसे लेकर बाद में नम आँखों से जसवंत सिंह ने कहा था कि उन्हें दुख इस बात का है कि पार्टी नेतृत्व ने उनसे आमने-सामने बात करना भी गंवारा नहीं समझा, पार्टी संस्थापक सदस्य होने के नाते मैं उनसे इतनी शिष्टता की उम्मीद तो रखता ही था।
रामविलास पासवान (8 अक्टूबर)
राजनीतिक गलियारों में बहती हवाओं का रुख भांपने वाले मौसम वैज्ञानिक और इंडियन पॉलिटिकल वर्ल्ड का एक जाना-पहचाना नाम देश के बड़े दलित नेताओं में शुमार, केन्द्र सरकार में खाद्य, उपभोक्ता एवं संरक्षण मामलों के मंत्री और लोक जनशक्ति पार्टी के संस्थापक राम विलास पासवान 74 साल की उम्र में 8 अक्टूबर 2020 को पंच तत्व में विलीन हो गए। केंद्रीय मंत्री और बिहार की राजनीति के कद्दावर नेता राम विलास पासवान राजनीति की दुनिया के वो प्रकाशपुंज थे जिन्हें एक दमदार राजनीतिज्ञ के साथ-साथ दलित व पिछड़े वर्ग के मसीहा के रूप में जाना जाता था। राम विलास पासवान एक ऐसी शख्सियत थे जिनका जाना सिर्फ एक पारिवारिक क्षति नहीं बल्कि राष्ट्रीय क्षति है, राम विलास के रूप में राष्ट्र ने एक बेहतरीन राजनेता खोया है।
5 जुलाई 1946 को बिहार के खगड़िया जिले के शाहरबन्नी गांव के एक दलित परिवार में जन्मे रामविलास पासवान की गिनती बिहार ही नहीं, देश के कद्दावर नेताओं में की जाती है। कम ही लोग जानते होंगे कि राजीनित में इतनी ख्याति प्राप्त राम विलास पासवान ने अपने करियर की शुरुआत पुलिस की नौकरी से की थी और शहरबन्नी के गली-कूचों से निकलकर दिल्ली की सत्ता के गलियारों तक खुद को एक काबिल राजनेता बनाने का अपना सफल सफर उन्होंने खुद के बल पर तय किया। रामविलास पासवान जनता के पसंदीदा नेता थे, जनता के भरोसे और स्हेन ने उन्हें इतने वोटों से विजयी कराया कि राजनीति में अब तक कोई उस जीत के रिकॉर्ड को तोड़ नहीं पाया। 1977 में हाजीपुर से 4.25 लाख वोटों से जीते और सबसे अधिक वोटों से जीत का वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया, फिर 1989 में उन्होंने अपना ही रिकॉर्ड तोड़ा और 5.05 लाख वोटों से जीत हासिल की और गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया।
50 साल में 9 बार सांसद रहे और अपने सही फैसलों के चलते कई सरकारों के साथ रहे। 74 साल की उम्र में राम विलास पासवान ने इस दुनिया से विदा भले ले लिया हो, लेकिन खुद की जो छवि वो लोगों के जहन में बनाकर गए, वो अमिट है।
तरुण गोगोई (23 नवंबर)
साल 2020 में कांग्रेस ने अपने जिन कद्दावर नेताओं को खोया उनमें एक नाम है असम के पूर्व मुख्यमंत्री, शालीन और कद्दावर नेता तरुण गोगोई का। 86 साल के तरुण गोगोई कोरोना संक्रमण की चपेट में आए, वे संक्रमण से तो उबर गए लेकिन उसके बाद होने वाली शारीरिक समस्याओं के चलते 23 नवंबर को उनका निधन हो गया। प्रखर बुद्धि, सलीकेमंद लहजा और सीमित बोलने वाले तरुण गोगोई वकालत से राजनीति में आए थे वे मुख्समंत्री नहीं बनना चाहते थे लेकिन फिर भी तीन-तीन बार असम के मुख्यमंत्री पद का कार्यभार संभाला।
11 अक्टूबर 1934 को जोरहाट के रंगमती गांव में जन्मे तरुण गोगोई ने अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद 1963 में गौहाटी विश्वविद्यालय, असम से एलएलबी की पढ़ाई पूरी की। साल 1968 में जोरहाट नगरपालिका बोर्ड के सदस्य के रूप में गोगीई ने अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत की। राजीव गांधी और इंदिरा गांधी के करीबी रहे तरुण गोगोई छह बार लोकसभा सांसद और केन्द्रीय मंत्री भी रहे। साल 1971 में गोगोई इंदिरा गांधी के कार्यकाल के दौरान पांचवीं लोकसभा के लिए चुने गए।
30 जुलाई 1972 को वे विवाह बंधन में बंधे, गोगोई का एक बेटा गौरव गोगोई (लोकसभा सदस्य) और बेटी चंद्रिमा गोगोई है। इंदिरा गांधी के वक्त में गोगोई कांग्रेस के संयुक्त सचिव और राजीव गांधी के समय में महासचिव नियुक्त किये गए और नरसिम्हा राव की सरकार में वो खाद्य प्रसंस्करण मंत्री बनाए गए और इसके बाद गोगोई साल 2001 से लेकर 2016 तक लागातार तीन बार, सबसे लंबे वक्त तक असम के मुख्यमंत्री रहे और साल 2016 में भाजपा के खिलाफ हार के बाद गोगोई का कार्यकाल समाप्त हो गया।
कहते हैं जंग में शिकश्त हो तो जान जाती है, सियासत में शिकश्त हो तो शान जाती है। अपने सफल राजनीतिक जीवन में कांग्रेस की भाजपा के हाथों शिकश्त के बाद गोगोई ने राजनीति को अलविदा कह दिया।
अहमद पटेल (25 नवंबर)
राजनीति की दुनिया में बाबू भाई, अहमद भाई, और एपी के नाम से मशहूर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और कोषाध्यक्ष, अहमद पटेल राजनीति की दुनिया का एक ऐसा सितारा थे, जो मीठी वाणी, मिलनसार स्वभाव और आतिथ्य सत्कार के धनी थे। सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार या कहिए संकट मोटन और कांग्रेस पार्टी के ऐसे चाणक्य जो अपने सुझावों से पार्टी को बुरी स्थितियों में से भी उबार लाते थे, लेकिन साल 2020 ने कांग्रेस पार्टी के इस कोहिनूर को छीन लिया। कोविड 19 के संक्रमण से जूझते हुए अहमद पटेल ने 25 नवंबर को 71 वर्ष की उम्र में अंतिम सांस ली।
21 अगस्त 1949 को गुजरात के भरूच जिले की अंकलेश्वर तहसील के पिरामण गांव में जन्मे अहमद पटेल ने करीब चार दशक के राजनीतिक जीवन में सबसे लंबा वक्त कांग्रेस को दिया। कांग्रेस में अच्छी पैठ रखने वाले अहमद पटेल ने पार्टी कें कई अहम पदों की जिम्मेदारियों के साथ-साथ गांधी परिवार के भरोसे को भी ईमानदारी से कायम रखा।
कांग्रेस में उनका सफर इंदिरा गांधी से शुरु होकर राहुल-प्रियंका तक रहा। वे 1977 से 1982 तक यूथ कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष रहे, दिसंबर 1983 से 1984 तक ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी के जॉइंट सेक्रटरी पद को भी संभाला और 1985 में जनवरी से सितंबर तक पटेल ने तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के संसदीय सचिव के तौर पर भी काम किया। ऑस्कर फ़र्नांडीस और अरुण सिंह के साथ जब अहमद पटेल को सचिव बनाया गया तब चर्चाओं में इन तीनों को अमर, अकबर, एंथनी कहा गया।
2001 से 2017 तक सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव रहे अहमद पटेल को साल 2018 में पार्टी का कोषाध्यक्ष बनाया गया। पूरे राजनीतिक कार्यकाल में वे तीन बार लोकसभा सांसद और चार बार राज्यसभा के लिए चुने गए। साल 1993 से वे लगातार राज्यसभा के सदस्य थे। कांग्रेस में बेहद शर्मीले नेता कै तौर पर जाने जाने वाले अहमद पटेल ने कांग्रेस के तालुका पंचायत के अध्यक्ष पद से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी, उन्होंने ने अपना पहला चुनाव साल 1977 में भरूच लोकसभा सीट से लड़ा था। जिसमें 62 हजार 879 मतों से जीत हासिल कर अहमद पटेल महज 26 साल की उम्र में सांसद बन गए थे। पटेल सियासी बिसात के इतने माहिर खिलाड़ी थे कि साल 2017 में गुजरात राज्य सभा के चुनाव के दौरान अमित शाह और पीएम नरेंद्र मोदी की जोड़ी ने उनके खिलाफ जबर्दस्त किलेबंदी की थी, बावजूद इसके उन्होंने जीत दर्ज की, लेकिन अब पटेल के निधन के बाद ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि ये सीट बीजेपी के खाते में जा सकती है।
देश के राजनीतिक इतिहास में कांग्रेस पार्टी के शानदार प्रदर्शन और चुनावी जीतों में अहमद पटेल का अहम योगदान था, लेकिन इतने राजनीतिक अनुभव और रणनीतिक कौशल के बाद भी पटेल ने कभी मंत्री पद नहीं स्वीकारा। पार्टी की विषम परिस्थितियों में ट्रबल शूटर की भूमिका निभाने वाले अहमद पटेल का निधन कांग्रेस पार्टी के लिए एक बड़ा झटका रहा। ऐसा वक्त जब पार्टी के सितारे गर्दिशों में हैं पटेल जैसे अनुभवी राजनीतिज्ञ, और पार्टी में सेनापति की भूमिका निभाने वाले एक भरोसेमंद सलाहकार का जाना पार्टी के लिए एक अपूर्णीय क्षति है। जिसकी कमी कांग्रेस को सदा खलेगी।
मोतीलाल वोरा (21 दिसंबर)
साल 2020 ने राजनीतिक जगत की कई हस्तियों को हमसे छीना है। साल जाते-जाते कांग्रेस के दिग्गज नेता मोती लाल वोरा की मृत्यु के साथ एक और दुखद दिनांक इनमें जुड़ गया। वोरा हाल ही में कोरोना संक्रमण से ठीक हुए थे और 20 दिसंबर को उन्होंने अपना 92वां जन्मदिन मनाया था। कोरोना वायरस के बाद होने वाली शारीरिक समस्याओ के चलते उनकी तबीयत नासाज बनी हुई थी जिसके चलते वोरा को अस्पताल में भर्ती कराया गया और बीमारी से जूझते हुए 21 दिसंबर को उन्होंने अस्पताल में अंतिम सांस ली। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और यूपी के पूर्व राज्यपाल मोतीलाल बोरा लंबे समय तक कांग्रेस के कोषाध्यक्ष भी रहे।
20 दिसंबर 1928 को राजस्थान के नागौर में जन्मे मोती लाल वोरा ने रायपुर व कलकत्ता से अपनी शिक्षा पूरी की और बतौर पत्रकार अपने करियर की शुरुआत की। पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करते हुए उन्होंने कई सालों तक कई समाचार पत्रों का प्रतिनिधित्व किया और फिर साल 1968 में पत्रकारिता छोड़ राजनीति में कदम रखा। साल 1970 में उन्होंने मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की और मध्य प्रदेश ‘राज्य सड़क परिवहन निगम’ के उपाध्यक्ष नियुक्त किए गए, इसके बाद वो 1977 और 1980 में भी विधानसभा के लिए चुने गए और उन्हें 1980 में अर्जुन सिंह मंत्रिमंडल में उच्च शिक्षा विभाग का कार्यभार संभालने का अवसर मिला। इसके बाद साल 1983 में वे कैबिनेट मंत्री बने साथ ही मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष के रूप में भी नियुक्त किए गए। 13 फरवरी 1985 को मोतीलाल वोरा मध्यप्रदेश के सीएम बने लेकिन 13 फरवरी 1988 को उन्होंने अपने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया और 14 फरवरी 1988 से केंद्र के स्वास्थ्य परिवार कल्याण और नागरिक उड्डयन मंत्रालय का कार्यभार संभाला। साल 1989 में वोरा एक बार फिर 11 महीनों के लिए मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। इसके बाद 26 मई 1993 से 3 मई 1996 तक वे उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे और साल 2000 से लेकर 2018 तक 18 साल उन्होंने पार्टी के कोषाध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाली।
उनके बारे में कहा जाता था कि बतौर कोषाध्यक्ष वे पार्टी की पाई-पाई का हिसाब रखते थे, मोती लाल वोरा गांधी परिवार के बेहद करीबी और भरोसेमंद थे। इंदिरा गांधी से लेकर राहुल–प्रियंका तक वोरा ने पूरी निष्ठा से पार्टी को मजबूत करने में अपना योगदान दिया। राजनीति में सूरज की भांति चमकने वाले मोतीलाल वोरा ने हर बुलंदी हासिल की लेकिन अकंहार को खुद पर कभी हावी नहीं होने दिया। लोग उन्हें प्यार से दद्दू भी बुलाते थे। वोरा का निधन कांग्रेस के लिए एक बड़ा झटका है।
साल गया लेकिन आम आदमी हो सितारे या सियासत, सभी को सिसकियां बहुत देकर गया। देश क्या दुनिया के हर हिस्से के आदमी ने साल 2020 में बहुत कुछ ऐसा घटित होते देखा जो अकल्पनीय था।