स्मिथा सिंह, नई दिल्ली
24 जनवरी को हर साल भारत में नेशलन गर्ल चाइड डे यानि राष्ट्रीय बालिका दिवस के रूप में मनाया जाता है इस उद्देश्य से कि लिंग के आधार पर होने वाले भेदवाभ को खत्म किया जा सके और महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा मिले, लेकिन एक महिला होने के नाते ये प्रश्न मेरे जहन में उठना लाजमी है कि क्या ये एक दिन पर्याप्त है, समाज में लड़की-महिला की भूमिका को सशक्त बनाने और लिंग के भेदभाव से मुक्त कराने के लिए। क्या 365 दिन के साल में महज ये एक दिन बालिकाओं के लिए निर्धारित करने से पुरुष प्रधान समाज के उन बीमार लोगों की मानसिकता में बदलाव आएगा जो लड़की को लड़कों से और नारी को पुरुष से छोटा, कमतर और निर्बल आंकते हैं। बेशक नहीं। क्योंकि मेरा मानना है कि मानसिकता में बदलाव के लिए महज एक दिन निर्धारित करना पर्याप्त नहीं, हर दिन उस संकीर्ण सोच का इलाज करना होगा, जो समाज को ऐसे भेदभावों से बीमार बना रही है, क्योंकि यदि ये एक दिन निर्धारित होने से बच्चियां सुरक्षित हुई होतीं तो साल 2009 के बाद बच्चियों के साथ होने वाले भेदभाव, कुकर्मों और अत्याचारों के ग्राफ में खासी गिरावट आई होती, लेकिन अफसोस ऐसा कुछ नहीं हुआ। तो फिर कहां सार्थक हुआ इस दिन को मनाना क्योंकि यदि थोड़ा भी फर्क पड़ा होता तो 2009 के बाद 2021 की तस्वीर बालिकाओं के लिए बेशक खूबसूरत होनी चाहिए थी, जो कि नहीं है। इस विषय पर एक महिला के मन और जहन में अनगिनत सवालों का सैलाब होता है, लेकिन उन सवालों के सबल, सशक्त उत्तर नहीं मिल पाते, इसलिइ प्रश्नों को विराम देकर मैं आपको इस दिन से संबंधित जानकारी से अवगत कराती हूं।
क्यों 24 जनवरी को ही मनाते हैं नेशलन गर्ल चाइड डे
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने साल 2008 में ये तय किया कि देश की बालिकाओं को समर्पित एक दिन राष्ट्रीय बालिका दिवस के रुप में मनाया जाएगा और इसके लिए 24 जनवरी की तारीख का चुनाव हुआ, और तब से हर साल 24 जनवरी की तारीख को राष्ट्रीय बालिका दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। राष्ट्रीय बालिका दिवस के लिए 24 जनवरी की तारीख इसलिए चुनी गई क्योंकि इसी दिन साल 1966 में देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं थीं इंदिरा गांधी। राष्ट्रीय बालिका दिवस के दिन देश की पहली महिला प्रधानमंत्री को नारी शक्ति के रूप में याद कर इस दिन को मनाया जाता है और समाज में लड़कियों के क्या अधिकार हैं इसके प्रति जागरुक कराने के लिए तमाम तरह के कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए बालिका शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण के महत्व के प्रति लोगों को जागरुक किया जाता है।
भारत अग्रसर, पर सिक्के का दूसरा पहलू भी है
ये सच है कि भारत की बेटी आज हर क्षेत्र में अग्रसर है, लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू वो भी है जहां इसी समाज के सैकड़ों घरों में बेटी आज के आधुनिक भारत में भी तमाम कुरीतियों का शिकार हो रही है, पढ़ी-लिखी पीढ़ी में भी संकीर्ण मानसिकता के ऐसे तमाम लोग हैं जो आज भी बेटी को बेटों से कमतर आंकते हैं, उसकी थाली में बेटे से कम भोजन और जीवन में थोड़ी ही शिक्षा उपलब्ध कराते है। अनपढ़ समाज ही बेटी का हत्यारा नहीं था आज की पढ़ीलिखी आबादी में भी बेटों की चाह में बेटियों को गर्भ में ही मौत के घाट उतारा जाता है, 18 साल की उम्र से पहले लड़की की शादी कानूनी अपराध है, फिर भी देश के कई हिस्सों में नाबालिग लड़कियों के हाथ पीले होते हैं, उनके सौदे होते हैं, दुष्कर्म और कुकर्मों का शिकार होती है भारत की बेटी।
अगर हम ये भ्रम पालें कि राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाए जाने के बाद लड़कियों की दुर्दशा के आंकड़ों में सुधार हुआ है तो ये सोच महज एक सपना होगी, क्योंकि आंकड़े आज भी बेटी के दर्द की दासतां कहते नजर आते हैं, आज भी भारत की 50 प्रतिशत बेटियों को प्राथमिक शिक्षा के बाद स्कूल छोड़ना पड़ता है सिर्फ इसलिए क्योंकि उन्हें घर संभालना होता है। ये दुर्भाग्य नहीं तो और क्या है कि एशिया महाद्वीप में भारत की महिला साक्षरता दर सबसे कम है। हम 21वीं सदी के 2 दशक जी चुके हैं लेकिन समाज में आज भी वो मानसिकता जिंदा है जो बेटी को बेटों के समान नहीं मानती। इसी समाज में लोग मन्नतों की पूर्ति के लिए देवी और कन्याओं की पूजा तो करते हैं, लेकिन उसी यदि खुद के घर में कन्या का जन्म हो तो आज भी मातम पसरता है। ऐसे में क्या लाभ इस एक दिन को मनाने का जब समाज की बीमार सोच का इलाज ही संभव नहीं।
एक दशक के ऊपर हुआ बालिका दिवस मनाते-मनाते, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओं और बालिकाओं के प्रति भेदभाव दूर करो जैसे संदेश फैलाते, जागरुकता कार्यक्रम करते, लेकिन कितना सुधार हुआ। कहां संतोषजनक लगती है बालिकाओं की स्थिति। हां जो सुलझे हुए परिवार व माता-पिता हैं वहां बेटी अपनी प्रतिभाओं को निखारने में सफल हो रही हैं, लेकिन जहां स्थिति खराब थी वहां आज भी जस की तस ही है। न बेटी सुरक्षित है, न सारक्षता के आंकड़े दुरुस्त हुए हैं ना लिंगानुपात में सुधार है, और ना छेडछाड़ व दुष्कर्मों की वारदातों में गिरावट है। और हम 2021 का राष्ट्रिय बालिका दिवस मना रहे हैं, लेकिन इसमें पूर्णत सरकार व प्रशासन दोषी है, ये वहम भी मन से निकलना होगा।
कैसे हो सुधार?
सरकार बेटी के संरक्षण व सुरक्षा के लिए कितनी ही योजनाएं ले आए, बालिकाओं के नाम साल के कैलेंडर में कितनी ही तारीखे निर्धारित कर दे, लेकिन वास्तव में जब तक हम व्यक्तिगत तौर पर इस सुधार के लिए अपने कदम आगे नहीं बढ़ाएंगे इस दिशा में सुधार असंभव है। समाज की कुरीतियों के खात्मे की शुरुआत भी समाज के लोगों को ही करनी होगी, यदि बेटी को सुरक्षा देनी है तो बेटी के महत्व को समाज के हर बाशिंदे को समझना होगा। ये समझना होगा कि सरकार व प्रशासन द्वारा सुधार की दिशा में उठाया गया कोई भी कदम केवल तभी कारगर है जब समाज उस विषय को समझ कर अपनी भागीदारी दे। ठीक यही बात राष्ट्रीय बालिका दिवस के संदर्भ में भी लागू होती है। हर घर में संकीर्ण सोच के लोग होते हैं, समाज के ऐसे लोगों की सोच में बदलाव हर व्यक्ति खुद करने की कोशिश करे। तभी हमारा ऐसे किसी दिन को मनाना सार्थक होगा, जब देश, समाज का हर बाशिंदा बेटे की तरह बेटी को भी गर्व की दृष्टि से देखेगा और तब शायद हमें ये दिन मनाने की जरूरत भी ना पड़े, शायद लोगों के ये समझाना ही ना पड़े कि बेटी के अधिकार क्या हैं।