Sweta Ranjan, New Delhi
महाराष्ट्र की राजनीति बीते कुछ वर्षों से ‘असली’ और ‘नकली’ की बहस के इर्द-गिर्द घूमती रही है। राजनीतिक दलों में फूट, चुनावी चिन्हों पर खींचतान और जनता के विश्वास पर सवालों ने राज्य के राजनीतिक परिदृश्य को उलझा दिया। आज चुनावी नतीजों के बाद यह स्पष्ट होने वाला है कि महाराष्ट्र की जनता ने किसे ‘असली नेता’ और किसे ‘छलावा’ माना।
शिवसेना: तीर-कमान बनाम मशाल
शिवसेना की राजनीतिक विरासत पर विवाद तब गहराया जब पार्टी में फूट के बाद उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे के गुट आमने-सामने आ गए। चुनाव चिन्ह ‘तीर-कमान’ पर दोनों गुटों ने दावा ठोका। चुनाव आयोग ने विधायकों की संख्या के आधार पर शिंदे गुट को यह चिन्ह सौंप दिया, जिससे उद्धव ठाकरे को बड़ा झटका लगा। मजबूरन, उन्होंने ‘मशाल’ चुनाव चिन्ह के साथ मैदान में उतरने का फैसला किया।
शिंदे गुट ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ गठबंधन कर सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत की, लेकिन उद्धव गुट के लिए यह चुनाव अपनी राजनीतिक पहचान और बालासाहेब ठाकरे की विरासत बचाने का संघर्ष बन गया।
एनसीपी: घड़ी बनाम तुतारी
शिवसेना के बाद राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में भी बगावत देखने को मिली। शरद पवार और उनके भतीजे अजित पवार के बीच ‘घड़ी’ चुनाव चिन्ह और पार्टी के नाम पर विवाद छिड़ा। चुनाव आयोग ने अजित पवार गुट को चिन्ह और पार्टी का नाम सौंप दिया। शरद पवार को ‘तुतारी’ चिन्ह के साथ अपनी नई शुरुआत करनी पड़ी।
चुनावी प्रचार के दौरान अजित पवार गुट ने शरद पवार की छवि और नाम का इस्तेमाल किया, जिससे जनता में भ्रम की स्थिति पैदा हुई। शरद पवार ने इसे लेकर नाराजगी जताई और सुप्रीम कोर्ट तक मामला पहुंचा। कोर्ट ने दोनों गुटों को अपनी अलग पहचान के साथ चुनाव लड़ने का निर्देश दिया।
जनता तय करेगी ‘असली’ कौन?
महाराष्ट्र की 41 सीटों पर एनसीपी के दोनों गुटों के बीच कांटे की टक्कर है। ताजा रुझानों के मुताबिक, अजित पवार गुट 33 सीटों पर आगे है, जबकि शरद पवार गुट 23 सीटों पर बढ़त बनाए हुए है। वहीं, शिवसेना के रुझानों में शिंदे गुट 49 सीटों पर आगे है, जबकि उद्धव गुट 30 सीटों पर।
यह लड़ाई सिर्फ चुनाव चिन्ह और नाम की नहीं, बल्कि जनता का विश्वास जीतने की भी है। महाराष्ट्र में यह चुनाव तय करेगा कि राजनीतिक विरासत को जनाधार के बिना आगे बढ़ाना कितना संभव है।
सियासत में नैतिकता बनाम संख्या बल
महाराष्ट्र की इस सियासी जंग ने राजनीति में नैतिकता और पहचान के मुद्दे को फिर से चर्चा में ला दिया है। चुनावी नतीजे यह साफ करेंगे कि जनता किसे ‘असली नेता’ मानती है और किसे नकारती है। सत्ता तक पहुंचने के लिए केवल संख्या बल काफी है, या जनता का विश्वास ही असली ताकत है—इसका फैसला आज के नतीजे करेंगे।