जिसकी एक थाप से अलौकिक अनुभूति हो, मन हिलोरे भरने लगे और ईश्वरीय दर्शन हो जाए- ऐसे ही दिग्गज कलाकार हैं उदय मज़ूमदार। इनके लिये तबला ही जिंदगी का सुख और जरिया है। इनकी एक थाप से धड़कने दौड़ लगाने लगती हैं, तबला ही इनका दोस्त और हमसफर है। संगीत के परिवार से ताल्लुक रखने वाले उदय के पिता पार्थो सारथी मजूमदार भारतीय शास्त्रीय संगीत में गिटार की पहली पीढी से ताल्लुक रखते हैं।
तबला बजाना मैंने छह साल की उम्र में शुरू किया था। उसके पहले से मै गाना सीखता था क्योंकि घर में सभी लोग गायकी से जुड़े थे। परिवार में किसी ने कभी तबला या कोई और परकशन नहीं बजाया था। घर पर तबलावादक आया करते थे उनको देख कर काफी आकर्षित हुआ करता था। छह साल की उम्र से मैंने अपने आप ही बिना पापा के पूछे मैंने तबलावादक से कहा मुझे थोड़ा सिखाइये ना प्लीज। पापा ने भी देखा की सीख रहा है तो कहा चलो अच्छा है गाना तो गाता है रिदम जान जाएगा तो वो भी गायकी के लिए अच्छा है।
बचपन से ही गाना और तबला की बारीकियों को सीखने वाले उदय की ज़िंदगी में बदलाव तब आया जब थोड़ा समझ आने लगा कि संगीत क्या चीज है। “जब क्लास छह-सात में था तो समझ आने लगा। पहले तो पढ़ना, खेलना भी होता था, पापा की डांट से प्रैक्टिस किया करता था लेकिन खुद से रियाज करने की चाहत और मुहब्बत तब जगी जब मैं क्लास छह-सात में पहुंचा”। उदय ने दोनों ही कला में प्रभाकर किया। उन्होंने संगीत समीति और भातखंडे से ऑल इंडिया कॉम्पीटीशंस में हिस्सा लिया।
उदय की ज़िंदगी में एक ऐसा मोड़ भी आया जब दोनों की कलाओं में माहिर इस कलाकार को किसी एक का चन करना था। “अचानक से मुझे लगा, दो चीजों को लेकर मैं बहुत खुश नहीं था। आइडेंटी क्राइसिस हो रहा था कि भई ये गाना गाते हैं कि तबला बजाते हैं। कुछ समय के बाद मैंने तबला को स्टेज के लिए चुना। मैंने गाना सीखा था उससे लाभ तो बहुत हुआ क्योंकि जब आप बजाते हैं तो अक्सर तबला आप सोलो तो बजाते नहीं हैं। एकलवादन तो होता नहीं है, अक्सर आप किसी सितार वादक के साथ बजाते हैं”।
उदय के इस फैसले ने परिवार को झकझोर कर रख दिया क्योंकि घर की परंपरा गायकी की थी। एक तबला वादक की राह में आने वाली कठिनाईयों से घर के सदस्य वाकिफ थे। “जब मैंने पिता जी को कहा कि तबला मैं मेन रखूंगा तो उन्हें बहुत दुख हुआ था। वो चाहते थे मैं वोकलिस्ट बनूं क्योंकि हम सभी को पता है कि अपने देश में तबला वादकों के लिए थोड़ा मुश्किल तो होता ही है। एकलवादन हमेशा तो होता नहीं है और ना ही वो स्थान मिलता है। किसी भी कॉन्सर्ट के पोस्टर में तबलावादक का स्थान मुख्य नही होता है”।
धीरे धीरे उदय को यह बात बात बखूबी समझ आ गई की तबले का अपना स्थान है, और फिर तबला ही उनका पहला प्रेम था। “अफसोस कभी भी नही हुआ कि तबला वादन का चयन क्यों किया। तबले से मेरा स्नेह और प्यार आज भी उतना ही है जितना शुरूआत में था क्योंकि इसका चयन मैंने प्रोफशन के लिए तो किया नहीं था। पसंद था इसलिए चुना था वरना देखिए शास्त्रीय संगीत करके आर्थिक रूप से आप कभी भी उतना नहीं कमा सकते जितना आप बॉलीवुड म्यूज़िक से कमा सकते हैं लेकिन फिर भी हम करते हैं क्योंकि इसी से प्यार है। तो इस बात का अफसोस कभी नहीं होता कि बॉलीवुज म्यूज़िक क्यों नहीं चुन लिया, सोनू निगम क्यों नहीं बन गये। क्योंकि हमें तबले से ही प्यार है, यही एक चीज समझ में आया ज़िंदगी में”।
“तबले को ज़िंदगी बनाना है यह मैंने सोच लिया था। यह फैसला पूरी तरह से मेरा था। पिता जी तो वोकल पर ही जोर दे रहे थे लेकिन मैने तबले को लेकर फैसला कर लिया था। मैं तबला और वोकल दोनों ही सीखता रहा। 16 साल की उम्र में मैंने दोनों में से तबले तो चुना। वो मेरा खुद का फैसला था। पिताजी नाराज भी हुए थे। अब ये बात समझ में आ गई है कि अगर कॉन्सर्ट सितार प्लेयर का है तो श्रोता सितार सुनना चाह रहे थे, तबले के साथ। लेकिन तबले के कलाकारों से आजकल पूछा जाने लगा है कि वो किस मेन इंस्ट्रूमेंट को चुनना चाहेंगे जैसे बिक्रम घोष हैं, तन्मय बोस हैं। या फिर अभीजित बैनर्जी हैं वो खुद ही आर्टीस्ट का चयन करते हैं। समय तो बदला है साथ ही सीनियारिटी के हिसाब से भी स्थान मिलता है”।
उदय के तबले को लेकर श्रोताओं में दिवानगी भी छा गई क्योंकि गायकी के ज्ञान से भी उन्हें काफी लाभ मिला। “तबले के साथ वोकल का ज्ञान सोने पर सुहागा कि तरह होता है क्योंकि अगर आप संगीत को समझ कर करेंगे तो और अच्छा हो जाता है। तो इससे बहुत लाभ मिला मुझे, साथ ही मैं कॉम्पोजीशंस वगैरा भी करता हूं, एलबम निकालता हूं, वोकल स्टूडेंट्स को सीखा भी देता हूं”।
उदय ने शास्त्रीय गायकी में सिलसिलेवार तालीम की बहुत आवश्यक्ता महसूस नहीं की क्योंकि उनके घर के हर कोने से शास्त्रीय गायकी गूंजती थी। उनका बचपन शास्त्रीय गायकी के सुर-ताल के बीच ही गुजरा है। लेकिन तबले के लिये उनके गुरूओं ने उनके अंदर छुपी कला और प्रतिभा को पहचान लिया। “जहां तक सुर-ताल की बात है मैंने घर पर ही सीखा, बाहर जाने की जरूरत नहीं हुई। तबले के लिए जरूर घर से बाहर जाना पड़ा, बनारस जाना पड़ा। बनारस में कविराज आशुतोष भट्टाचार्य जी से मैंने तालीम ली। गुरू आशु बाबू से तबले की तकनीक को सीखा लेकिन एकंपनीमेंट तो वो नहीं सिखा पायेंगे यह महसूस हुआ। मुझे सितार के महान कलाकार भारत रत्न पंडित रविशंकर जी से सीखने का मौका मिला क्योंकि उनका मेरे घर से घनिष्ठ संबंध रहा है। एक बार वो मेरे इलाहाबाद के घर आये थे जब मेरे ताऊ जी ने एक कार्यक्रम करवाया था। उन्होंने मुझे सुना, उनको मेरा बजाना पसंद आया, तो उन्होंने मुझे दिल्ली बुलाया। मेरे लिये तो सौभाग्य की बात थी, जैसे सारे सपने सच हो गये हों ऐसा लगा। उनके साथ रहकर मैंने सीखा, उनके साथ कॉन्सर्ट्स भी बजाये मैंने। फिर दिल्ली ही रह गया। पंडित रविशंकर जी से मैंने एकंपनीमेंट सीखा। मेरे साथ के सब सितारवादक या सितारवादक थे। एक ही साथ हमने सीखा, एक ही साथ इस प्रोफेशन में आये। हमसब एक साथ हमउम्र दोस्तों और गुरूभाई-बहनों की तरह रहते थे, सीखते थे। फिर जब हम कॉन्सर्ट में बजाने लगे तो लगा कि देखो हमारे गुरूभाई-बहनों की तो तस्वीरें भी पोस्टर में छपी है जबकि मेरा नाम नीचे छोटा-छोटा लिखा है। जबकि मेहनत तो हमने एक ही किया। कभी प्रोफेशन के लिए तो संगीत किया नहीं था क्योंकि संगीत से प्यार था, आगे जाकर तबला को क्या स्थान मिलेगा और सितार को क्या स्थान मिलेगा यह तो सोचा नहीं था न। इस बात को समझ लेने और सह लेने में थोड़ा समय लगा। अब तो यह बात समझ आ गई है कि एक एकम्पनिस्ट तो एकम्पनिस्ट ही होता है। जब आप एकलवादन करते हैं तो फिर आपकी भी फोटो छपती है”।
उदय के परिवार का संगीत से गहरा ताल्लुक रहा है जिसकी छाप उदय पर साफ दिखाई देती है। “हमारे घर में कई संगीतकार रहे हैं लेकिन परिवार में हमने म्यूजिक को कभी प्रोफेशन के तौर पर नहीं लिया। हमारे घर के सदस्यों नें संगीत की सेवा की है”।
उदय मानते हैं कि भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक खास जगह है जिसके कभी भी गुमनामी के अंधेरों का सामना नहीं करना पड़ेगा। “धूम धड़ाका तो आया है लेकिन हरेक सदी हर एक दशक का अपना एक संगीत होता है, बदलाव से गुज़रता है संगीत। बदलाव तो आयेगा भी और पंसद के अनुसार लोग सुनेंगे भी लेकिन हमारा शास्त्रीय संगीत तो हमेशा शास्त्रीय ही रहेगा। हम सभी जानते हैं कि पांच हज़ार साल से चली आ रही है प्रथा तो यह तो हमेशा रहेगा, इसके गुम होने की संभावना नगन्य है। इसको चाहने और दाद देने वाले हमेशा रहेंगे, इसको सीखने वाले हमेशा रहेंगे। दूसरे देशों में भी यही हुआ है, क्लासिकल संगीत बहुत पुराना है लेकिन उसके बाद, पॉप, रॉक और रैप म्यूज़िक आया है, लेकिन क्लासिकल की अपनी जगह आज भी बरकरार है”।